अपने नाले में गर असर होता
क़तरा-ए-अश्क भी गुहर होता
जिन के नामे की है पहुँच तुझ तक
काश मैं उन का नामा-बर होता
दिल न देता जो मैं तुझे ज़ालिम
क्यूँ मिरी जान का ज़रर होता
फिर न करता सितम किसी पे अगर
हाल से मेरे बा-ख़बर होता
ख़ून-ए-उश्शाक़ करते क्यूँ नाहक़
गर बुतों को ख़ुदा का डर होता
काम आता मैं एक दिन प्यारे
रब्त मुझ से तुझे अगर होता
खींचती फ़ौज-ए-ख़त जो हुस्न पे तेग़
सीना मेरा ही वाँ सिपर होता
'सोज़' को शौक़ काबे जाने का
है बहुत पर ज़्यादा-तर होता
शैख़ मानिंद तेरे उस के पास
बार-बरदारी को जो ख़र होता
ग़ज़ल
अपने नाले में गर असर होता
मीर सोज़