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अपने हालात का असीर हूँ मैं | शाही शायरी
apne haalat ka asir hun main

ग़ज़ल

अपने हालात का असीर हूँ मैं

अब्दुल मन्नान तरज़ी

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अपने हालात का असीर हूँ मैं
दर्द की दौलत-ए-कसीर हूँ मैं

जम्अ' कर कर के अपनी महरूमी
बन गया किस क़दर अमीर हूँ मैं

मेरे ज़ाहिर को देखने वाले
एक बातिन ग़नी फ़क़ीर हूँ मैं

आज़मा ले तू जिस तरह चाहे
हूँ तो कम-माया बा-ज़मीर हूँ मैं

तू है अनवार-ए-बे-कराँ तू बता
किस का इक पारा-ए-मुनीर हूँ मैं

ये सवाल अब तिरे बचाओ का है
तेरी खींची अगर लकीर हूँ मैं

कोई हर्फ़-ए-तलब न हर्फ़-ए-सवाल
ऐसा इक बोरिया-पज़ीर हूँ मैं

तेरी किरनों ने तर्बियत की है
माना इक ज़र्रा-ए-हक़ीर हूँ मैं

ख़त्म मुझ पर है इन्फ़िराद मिरा
आप अपनी ही इक नज़ीर हूँ मैं

एक तहज़ीब के सहीफ़े का
शायद अब हिस्सा-ए-अख़ीर हूँ मैं

'तरज़ी' करता हूँ फिर रफ़ू दामन
या'नी इक सैद-ए-तर्क-ओ-गीर हूँ में