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अपने गुज़रे हुए लम्हात ज़रा याद करो | शाही शायरी
apne guzre hue lamhat zara yaad karo

ग़ज़ल

अपने गुज़रे हुए लम्हात ज़रा याद करो

सय्यद आरिफ़ अली

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अपने गुज़रे हुए लम्हात ज़रा याद करो
रोज़ होती थी मुलाक़ात ज़रा याद करो

क्या सुहानी थी घड़ी कैसा सुहाना मौसम
चाँद तारों की हसीं रात ज़रा याद करो

तुम अगर भूल गए हो तो कोई बात नहीं
इस अँगूठी की वो सौग़ात ज़रा याद करो

छत पे आ जाते थे कपड़ों का बहाना कर के
क्या मोहब्बत के थे जज़्बात ज़रा याद करो

मेरी मर्ज़ी में हुआ करती थी तेरी मर्ज़ी
कितने मिलते थे ख़यालात ज़रा याद करो

किस क़दर मेरी मोहब्बत के ज़माना था ख़िलाफ़
बस अकेली थी मिरी ज़ात ज़रा याद करो

ग़म के बादल जो उठा करते थे दिल पर 'आरिफ़'
अपने अश्कों की वो बरसात ज़रा याद करो