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अपने अश्कों की ये बरसात किसे पेश करूँ | शाही शायरी
apne ashkon ki ye barsat kise pesh karun

ग़ज़ल

अपने अश्कों की ये बरसात किसे पेश करूँ

नज़र बर्नी

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अपने अश्कों की ये बरसात किसे पेश करूँ
शब-ए-फ़ुर्क़त की ये सौग़ात किसे पेश करूँ

ग़म-ए-दौराँ की शिकायत ग़म-ए-जानाँ का गिला
उफ़ ये पेचीदा ख़यालात किसे पेश करूँ

कौन पूछेगा मिरे हाल-ए-फ़सुर्दा का मिज़ाज
ग़म-ए-दौराँ की हिकायात किसे पेश करूँ

ज़ीस्त को तल्ख़ बनाते हैं जो हर-दम मेरी
उलझे उलझे वो सवालात किसे पेश करूँ

मुंतशिर हो गया शीराज़ा-ए-उल्फ़त अफ़्सोस
दिल के बिखरे हुए ज़र्रात किसे पेश करूँ

ग़म की तश्हीर से हो जाती है तौहीन-ए-वफ़ा
इस अज़िय्यत के हिसाबात किसे पेश करूँ

चुन के अशआर ग़ज़ल के मैं सुनाऊँ किस को
दिल से उमडे हुए नग़्मात किसे पेश करूँ

आज भी वो तो नज़र आते हैं माइल-ब-सितम
और फिर शौक़ के जज़्बात किसे पेश करूँ