अपना घर भी कोई आसेब का घर लगता है
बंद दरवाज़ा जो खुल जाए तो डर लगता है
बा'द मुद्दत के मुलाक़ात हुई है उस से
फ़र्क़ इतना है कि अब अहल-ए-नज़र लगता है
इस ज़माने में भी कुछ लोग हैं फ़न के उस्ताद
काम कोई भी करें दस्त-ए-हुनर लगता है
जिस ने जी चाहा उसे लूट के पामाल किया
अपना दिल भी हमें दिल्ली सा नगर लगता है
अपनी कुछ बात है अहबाब में वर्ना ऐ 'शम्स'
सब धुआँ है वो जहाँ कोई शजर लगता है
ग़ज़ल
अपना घर भी कोई आसेब का घर लगता है
शम्स तबरेज़ी