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अना ज़दा था कहीं पर कहीं पर आन-ज़दा | शाही शायरी
ana zada tha kahin par kahin par aan-zada

ग़ज़ल

अना ज़दा था कहीं पर कहीं पर आन-ज़दा

कलीम हैदर शरर

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अना ज़दा था कहीं पर कहीं पर आन-ज़दा
ज़मीं की ज़द से निकलने तक आसमान-ज़दा

यहाँ पे दश्त ओ समुंदर की बात मत करना
हमारे शहर का हर शख़्स है मकान-ज़दा

ख़याल-ओ-ख़्वाब के मौसम बदलने वाले हैं
हुजूम वहम-ओ-तसव्वुर में है गुमान-ज़दा

तो बाल-ओ-पर की नुमाइश पे हर्फ़ आ जाता
हवा का रुख़ न पलटता अगर उड़ान ज़दा

हमारे ब'अद हमें ढूँडने के सब रस्ते
हमारी ख़ाक में मिल जाएँगे निशान-ज़दा

भँवर से डूब के उभरा तो ये खुला मुझ पर
समुंदरी थीं हवाएँ मैं बादबान-ज़दा

सब अपना हर्फ़-ए-मआनी बना रहे हैं 'शरर'
ये लफ़्ज़ लफ़्ज़ तो सदियों से हैं ज़बान-ज़दा