अन-कही को कही बनाना है
ए'तिबार-ए-सुख़न बढ़ाना है
मेरे अंदर का पाँचवाँ मौसम
किस ने देखा है किस ने जाना है
डुगडुगी ही नहीं बजानी मुझे
इश्क़ को नाच भी सिखाना है
तुम जो इतना उठा रहे हो मुझे
किस कुएँ में मुझे गिराना है
रात को रोज़ डूब जाता है
चाँद को तैरना सिखाना है
हिज्र में नींद क्यूँ नहीं आती
हिज्र का ज़ाइचा बनाना है
मैं वो बोसीदा क़ब्र हूँ 'बेदिल'
दफ़्न जिस में मिरा ज़माना है
ग़ज़ल
अन-कही को कही बनाना है
बेदिल हैदरी