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अमरद हुए हैं तेरे ख़रीदार चार पाँच | शाही शायरी
amrad hue hain tere KHaridar chaar panch

ग़ज़ल

अमरद हुए हैं तेरे ख़रीदार चार पाँच

इंशा अल्लाह ख़ान

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अमरद हुए हैं तेरे ख़रीदार चार पाँच
दे ऐसे और हक़ मुझे अग़्यार चार पाँच

जब गुदगुदाते हैं तुझे हम और ढब से तब
सहते हैं गालियाँ तिरी ना-चार चार पाँच

कल यूँ कहा कि टुक तू ठहर ले तो बोले आप
हैं मुंतज़िर मिरे सर-ए-बाज़ार चार पाँच

ओ जाने वाले शख़्स टुक इक मुड़ के देख ले
याँ भी तड़प रहे हैं गुनाहगार चार पाँच

सय्याद ले ख़बर कि दिया चाहते हैं जान
कुंज-ए-क़फ़स में ताज़ा गिरफ़्तार चार पाँच

म्याँ हम भी कोई क़हर हैं जब देखो तब लिए
बैठे हैं अपने पास तरहदार चार पाँच

चुपके से तुम जो कहते हो हैं अपने आश्ना
शोला भभूके और धुआँ-धार चार पाँच

हर एक उन से शोख़ है क्या ख़ूब बात हो
लग जाएँ तेरे हाथ जो यक-बार चार पाँच

तू उन को चाह छोड़ मुझे वाछड़े चे-ख़ुश
रक्खे हैं मेरे वास्ते दिलदार चार पाँच

है काम एक ही से वो चूल्हे में सब पड़ें
सदक़े किए थे ऐसे वो फ़िन्नार चार पाँच

साहिब तुम्हीं तुम्हीं नहीं हरगिज़ नहीं नहीं
मुझ को नहीं नहीं नहीं दरकार चार पाँच

'मीर' ओ 'क़तील' ओ 'मुसहफ़ी' ओ 'जुरअत' ओ 'मकीं'
हैं शायरों में ये जो नुमूदार चार पाँच

सो ख़ूब जानते हैं कि हर एक रंग के
'इंशा' की हर ग़ज़ल में हैं अशआर चार पाँच