अमीन-ए-राज़ है मर्दान-ए-हूर की दरवेशी
कि जिबरईल से है उस को निस्बत-ए-ख़्वेशी
किसे ख़बर कि सफ़ीने डुबो चुकी कितने
फ़क़ीह ओ सूफ़ी ओ शाइर की ना-ख़ुश-अंदेशी
निगाह-ए-गर्म कि शेरों के जिस से होश उड़ जाएँ
न आह-ए-सर्द कि है गोसफ़ंदी ओ मेशी
तबीब-ए-इश्क़ ने देखा मुझे तो फ़रमाया
तिरा मरज़ है फ़क़त आरज़ू की बे-नीशी
वो शय कुछ और है कहते हैं जान-ए-पाक जिसे
ये रंग ओ नम ये लहू आब ओ नाँ की है बेशी
ग़ज़ल
अमीन-ए-राज़ है मर्दान-ए-हूर की दरवेशी
अल्लामा इक़बाल