अक्स कितने उतर गए मुझ में
फिर न जाने किधर गए मुझ में
मैं ने चाहा था ज़ख़्म भर जाएँ
ज़ख़्म ही ज़ख़्म भर गए मुझ में
मैं वो पल था जो खा गया सदियाँ
सब ज़माने गुज़र गए मुझ में
ये जो मैं हूँ ज़रा सा बाक़ी हूँ
वो जो तुम थे वो मर गए मुझ में
मेरे अंदर थी ऐसी तारीकी
आ के आसेब डर गए मुझ में
पहले उतरा मैं दिल के दरिया में
फिर समुंदर उतर गए मुझ में
कैसा मुझ को बना दिया 'अम्मार'
कौन सा रंग भर गए मुझ में
ग़ज़ल
अक्स कितने उतर गए मुझ में
अम्मार इक़बाल