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अकेले रहने की ख़ुद ही सज़ा क़ुबूल की है | शाही शायरी
akele rahne ki KHud hi saza qubul ki hai

ग़ज़ल

अकेले रहने की ख़ुद ही सज़ा क़ुबूल की है

शकील आज़मी

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अकेले रहने की ख़ुद ही सज़ा क़ुबूल की है
ये हम ने इश्क़ किया है या कोई भूल की है

ख़याल आया है अब रास्ता बदल लेंगे
अभी तलक तो बहुत ज़िंदगी फ़ुज़ूल की है

ख़ुदा करे कि ये पौदा ज़मीं का हो जाए
कि आरज़ू मिरे आँगन को एक फूल की है

न जाने कौन सा लम्हा मिरे क़रार का है
न जाने कौन सी साअ'त तिरे हुसूल की है

न जाने कौन सा चेहरा मिरी किताब का है
न जाने कौन सी सूरत तिरे नुज़ूल की है

जिन्हें ख़याल हो आँखों का लौट जाएँ वो
अब इस के बा'द हुकूमत सफ़र में धूल की है

ये शोहरतें हमें यूँही नहीं मिली हैं 'शकील'
ग़ज़ल ने हम से भी बहुत वसूल की है