अजनबी शहर में उल्फ़त की नज़र को तरसे 
शाम ढल जाए तो रह-गीर भी घर को तरसे 
ख़ाली झोली लिए फिरता है जो ऐवानों में 
मेरा शफ़्फ़ाफ़ हुनर अर्ज़-ए-हुनर को तरसे 
जिस जगह हम ने जलाए थे वफ़ाओं के दिए 
फिर उसी गाह पे दिलदार नज़र को तरसे 
मेरी बे-ख़्वाब निगाहें हैं समुंदर शब है 
वक़्त थम थम के जो गुज़रे है सहर को तरसे 
जाने हम किस से मुख़ातब हैं भरी महफ़िल में 
बात दिल में जो न उतरे है असर को तरसे 
कितने मौसम हैं कि चुप-चाप गुज़र जाते हैं 
तेरे आने का दिलासा है ख़बर को तरसे 
शबनमी राख बिछी है मिरे अरमानों की 
नक़्श-ए-पा तेरे किसी ख़ाक-बसर को तरसे
        ग़ज़ल
अजनबी शहर में उल्फ़त की नज़र को तरसे
शाइस्ता मुफ़्ती

