अजीब रंग थे दिल में जो आँसुओं में न थे
पस-ए-मिज़ा थे वो चेहरे कि चिलमनों में न थे
जो रो चुके तो यही बोलते दर-ओ-दीवार
हुए ख़मोश कि जैसे कभी घरों में न थे
हमारी वज़्अ ने पाबंदियाँ क़ुबूल न कीं
मिसाल-ए-नश्शा थे हम और साग़रों में न थे
चले तो अपनी ही रफ़्तार से उलझ के गिरे
हवा की तरह मुक़य्यद जो फ़ासलों में न थे
चमन में रह के वो काँटे चुभो लिए हम ने
कि इतने रंग तो शायद यहाँ गुलों में न थे
फ़ना का ख़ौफ़ था महमेज़ चलने वालों का
ये हौसले कभी टूटे हुए परों में न थे
बड़ा अज़ीम मुसव्विर था डूबता सूरज
शफ़क़ के रंग मगर बुझते रौज़नों में न थे
ग़ज़ल
अजीब रंग थे दिल में जो आँसुओं में न थे
तौसीफ़ तबस्सुम