अजीब लोग थे वो तितलियाँ बनाते थे
समुंदरों के लिए सीपियाँ बनाते थे
वही बनाते थे लोहे को तोड़ कर ताला
फिर उस के बा'द वही चाबियाँ बनाते थे
मेरे क़बीले में ता'लीम का रिवाज न था
मिरे बुज़ुर्ग मगर तख़्तियाँ बनाते थे
फ़ुज़ूल वक़्त में वो सारे शीशागर मिल कर
सुहागनों के लिए चूड़ियाँ बनाते थे
ग़ज़ल
अजीब लोग थे वो तितलियाँ बनाते थे
लियाक़त जाफ़री