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अजीब ख़्वाब था उस के बदन में काई थी | शाही शायरी
ajib KHwab tha uske badan mein kai thi

ग़ज़ल

अजीब ख़्वाब था उस के बदन में काई थी

तहज़ीब हाफ़ी

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अजीब ख़्वाब था उस के बदन में काई थी
वो इक परी जो मुझे सब्ज़ करने आई थी

वो इक चराग़-कदा जिस में कुछ नहीं था मिरा
जो जल रही थी वो क़िंदील भी पराई थी

न जाने कितने परिंदों ने इस में शिरकत की
कल एक पेड़ की तक़रीब-ए-रू-नुमाई थी

हवाव आओ मिरे गाँव की तरफ़ देखो
जहाँ ये रेत है पहले यहाँ तराई थी

किसी सिपाह ने ख़ेमे लगा दिए हैं वहाँ
जहाँ पे मैं ने निशानी तिरी दबाई थी

गले मिला था कभी दुख भरे दिसम्बर से
मिरे वजूद के अंदर भी धुँद छाई थी