अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत था कल हवेली पर
लहु चराग़ जलाती रही हथेली पर
सुनेगा कौन मगर एहतिजाज ख़ुश्बू का
कि साँप ज़हर छिड़कता रहा चमेली पर
शब-ए-फ़िराक़ मिरी आँख को थकन से बचा
कि नींद वार न कर दे तिरी सहेली पर
वो बेवफ़ा था तो फिर इतना मेहरबाँ क्यूँ था
बिछड़ के उस से मैं सोचूँ उसी पहेली पर
जला न घर का अँधेरा चराग़ से 'मोहसिन'
सितम न कर मिरी जाँ अपने यार बेली पर
ग़ज़ल
अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत था कल हवेली पर
मोहसिन नक़वी