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अजब ज़माने की गर्दिशें हैं ख़ुदा ही बस याद आ रहा है | शाही शायरी
ajab zamane ki gardishen hain KHuda hi bas yaad aa raha hai

ग़ज़ल

अजब ज़माने की गर्दिशें हैं ख़ुदा ही बस याद आ रहा है

हफ़ीज़ जौनपुरी

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अजब ज़माने की गर्दिशें हैं ख़ुदा ही बस याद आ रहा है
नज़र न जिस से मिलाते थे हम वही अब आँखें दिखा रहा है

बढ़ी है आपस में बद-गुमानी मज़ा मोहब्बत का आ रहा है
हम उस के दिल को टटोलते हैं तो हम को वो आज़मा रहा है

घर अपना करती है ना-उमीदी हमारे दिल में ग़ज़ब है देखियो
ये वो मकाँ है कि जिस में बरसों उमीदों का जमघटा रहा है

बदल गया है मिज़ाज उन का मैं अपने इस जज़्ब-ए-दिल के सदक़े
वही शिकायत है अब उधर से इधर जो पहले गिला रहा है

किसी की जब आस टूट जाए तो ख़ाक वो आसरा लगाए
शिकस्ता दिल कर के मुझ को ज़ालिम निगाह अब क्या मिला रहा है

यहाँ तो तर्क-ए-शराब से ख़ुद दिल-ओ-जिगर फुंक रहे हैं वाइज़
सुना के दोज़ख़ का ज़िक्र-ए-नाहक़ जले को तू भी जला रहा है

करूँ न क्यूँ हुस्न का नज़ारा सुनूँ न क्यूँ इश्क़ का फ़साना
इसी का तो मश्ग़ला था बरसों इसी का तो वलवला रहा है

उमीद जब हद से बढ़ गई हो तो हासिल उस का है ना-उमीदी
भला न क्यूँ यास दफ़अतन हो कि मुद्दतों आसरा रहा है

मुझे तवक़्क़ो हो क्या ख़बर की ज़बाँ है क़ासिद की हाथ भर की
लगी हवा तक नहीं उधर की अभी से बातें बना रहा है

ज़रा यहाँ जिस ने सर उठाया कि उस ने नीचा उसे दिखाया
कोई बताए तो ये ज़माना कसी का भी आश्ना रहा है

'हफ़ीज़' अपना कमाल था ये कि जिस के हाथों ज़वाल देखा
फ़लक ने जितना हमें बढ़ाया ज़ियादा उस से घटा रहा है