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अजब नहीं है मुआलिज शिफ़ा से मर जाएँ | शाही शायरी
ajab nahin hai mualij shifa se mar jaen

ग़ज़ल

अजब नहीं है मुआलिज शिफ़ा से मर जाएँ

राकिब मुख़्तार

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अजब नहीं है मुआलिज शिफ़ा से मर जाएँ
मरीज़ ज़हर समझ कर दवा से मर जाएँ

ये सोच कर ही हमें ख़ुद-कुशी सवाब लगी
जो की है माँ ने तो फिर बद-दुआ' से मर जाएँ

ये एहतिजाज समुंदर के दम को काफ़ी है
किसी किनारे पे दो-चार प्यासे मर जाएँ

फ़सादियों को मैं इस शर्त पर रिहा करूँगा
कि फ़ाख़्ता के परों की हवा से मर जाएँ

तू अपने लहजे की रिक़्क़त को थोड़ा कम कर दे
फ़क़ीर लोग न तेरी सदा से मर जाएँ

उठा के फिरते हैं हम आप सिर्फ़ नाम तो लें
क़सम से आप तो कासे की का से मर जाएँ