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अजब कश्मकश है अजब है कशाकश ये क्या बीच में है हमारे तुम्हारे | शाही शायरी
ajab kashmakash hai ajab hai kashakash ye kya bich mein hai hamare tumhaare

ग़ज़ल

अजब कश्मकश है अजब है कशाकश ये क्या बीच में है हमारे तुम्हारे

दीप्ति मिश्रा

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अजब कश्मकश है अजब है कशाकश ये क्या बीच में है हमारे तुम्हारे
ज़रूरत ज़रूरत ज़रूरत ज़रूरत ज़रूरत की ख़ातिर मरासिम हैं सारे

हैं चारों तरफ़ ही बहुत लोग लेकिन हक़ीक़त में कोई भी अपना नहीं है
दिखावा दिखावा सभी कुछ दिखावा दिखावे में जीते हैं सारे के सारे

बुलंदी पे जिन को भी देखा ये पाया सभी आसरा ढूँडते फिर रहे हैं
किसे सरपरस्ती के क़ाबिल समझिए जिए जा रहे हैं ख़ुद अपने सहारे

सभी अपनी अपनी कहे जा रहे हैं हमें हम से छीने लिए जा रहे हैं
हमें अपनी ख़ातिर भी रहने दो थोड़ा नहीं कोई अपना सिवा अब हमारे

हमें अपनी ज़द में ही रहना पड़ेगा ख़ुदी को ख़ुदी में डुबोना पड़ेगा
न आपे से बाहर तू आना समुंदर समुंदर को समझा रहे हैं किनारे

फ़क़त दूरियों में ही सारी कशिश है कि नज़दीकियों से भरम टूटते हैं
फ़लक पे चमकना है क़िस्मत हमारी ज़मीं से ये कहते हैं टूटे सितारे

ये झूटे से रिश्ते ये फ़र्ज़ी से नाते कहाँ तक निभाएँ कहाँ तक निभाएँ
बहुत हो चुका बस बहुत हो चुका अब कोई तो बढ़े ये मखोटे उतारे