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ऐसी हुई सरसब्ज़-शिकायत की कड़ी बात | शाही शायरी
aisi hui sarsabz-shikayat ki kaDi baat

ग़ज़ल

ऐसी हुई सरसब्ज़-शिकायत की कड़ी बात

मुनीर शिकोहाबादी

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ऐसी हुई सरसब्ज़-शिकायत की कड़ी बात
सब्ज़े की तरह कान में उस गुल की पड़ी बात

क्यूँकर दहन-ए-तंग से ज़ाहिर हो कड़ी बात
मुँह आप का छोटा है न निकलेगी बड़ी बात

गुल-रंग तिरे होंठ हुए बार-ए-सुख़न से
ऐ जान उड़ा ले गई मिस्सी की धड़ी बात

तेरे सुख़न-ए-सख़्त में है हुस्न-ए-नज़ाकत
कानों को हुई पम्बा-ए-महताब कड़ी बात

इस पेच से तुम मुझ को उड़ाते हो दम-ए-नुत्क़
ज़ंजीर-ए-रम-ए-होश की बनती है कड़ी बात

तक़रीर तिरी शाख़-ए-गुल-ए-ताज़ा है ऐ मस्त
देती है कफ़-ए-बादा में फूलों की छड़ी बात

वस्फ़-दुर-ए-दंदाँ से ये बढ़ जाते हैं रुत्बे
रग रग को बना देती है मोती की लड़ी बात

हर कान हुआ है सबद-ए-गुल से ज़ियादा
क्या फूल के मानिंद तिरे मुँह से झड़ी बात

धोता है सुख़न दिल से ग़ुबार-ए-ग़म-ए-दुनिया
है गर्द-ए-अलम के लिए सावन की झड़ी बात

क्या मोहर बनाई तिरे याक़ूत-ए-सुख़न की
मानिंद-ए-नगीं हम ने अँगूठी में जड़ी बात

नक़्द-ए-सुख़न-ए-पाक दिया गर्द-ए-क़लक़ में
गंजीने के मानिंद तह-ए-ख़ाक गड़ी बात

जिस रोज़ मैं गिनता हूँ तिरे आने की घड़ियाँ
सूरज को बना देती है सोने की घड़ी बात

उस्ताद के एहसान का कर शुक्र 'मुनीर' आज
की अहल-ए-सुख़न ने तिरी तारीफ़ बड़ी बात