ऐसे वो दास्तान खींचता है
हर यक़ीं पर गुमान खींचता है
तेरी फ़ुर्क़त का एक इक लम्हा
जिस्म से मेरी जान खींचता है
जब भी मैं आसमाँ को छूने लगूँ
पाँव को मेहरबान खींचता है
मंज़िल-ए-ज़ीस्त के किसी भी तरफ़
अपनी जानिब निशान खींचता है
मैं हक़ीक़त जहाँ भी लिखता हूँ
वो वही दास्तान खींचता है
जब हक़ीक़त बयाँ करूँ उस की
मेरे मुँह से ज़बान खींचता है
सर-ज़मीन-ए-वतन पे अब वो 'नबील'
अपना हर सू मकान खींचता है
ग़ज़ल
ऐसे वो दास्तान खींचता है
नबील अहमद नबील