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ऐसे उस हाथ से गिरे हम लोग | शाही शायरी
aise us hath se gire hum log

ग़ज़ल

ऐसे उस हाथ से गिरे हम लोग

ज़िया मज़कूर

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ऐसे उस हाथ से गिरे हम लोग
टूटते टूटते बचे हम लोग

अपना क़िस्सा सुना रहा है कोई
और दीवार के बने हम लोग

वस्ल के भेद खोलती मिट्टी
चादरें झाड़ते हुए हम लोग

उस कबूतर ने अपनी मर्ज़ी की
सीटियाँ मारते रहे हम लोग

पूछने पर कोई नहीं बोला
कैसे दरवाज़ा खोलते हम लोग

हाफ़िज़े के लिए दवा खाई
और भी भूलने लगे हम लोग

ऐन मुमकिन था लौट आता वो
उस के पीछे नहीं गए हम लोग