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ऐसे लम्हे पर हमें क़ुर्बान हो जाना पड़ा | शाही शायरी
aise lamhe par hamein qurban ho jaana paDa

ग़ज़ल

ऐसे लम्हे पर हमें क़ुर्बान हो जाना पड़ा

ज़हीर ग़ाज़ीपुरी

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ऐसे लम्हे पर हमें क़ुर्बान हो जाना पड़ा
एक ही लग़्ज़िश में जब इंसान हो जाना पड़ा

बे-नियाज़ाना गुज़रने पर उठीं जब उँगलियाँ
मुझ को अपने अहद की पहचान हो जाना पड़ा

ज़िंदगी जब ना-शनासी की सज़ा बनती गई
राबतों की ख़ुद मुझे मीज़ान हो जाना पड़ा

रेज़ा रेज़ा अपना पैकर इक नई तरतीब में
कैनवस पर देख कर हैरान हो जाना पड़ा

साअतों की आहनी ज़ंजीर में जकड़ी हुई
साँस की तरतीब पर क़ुर्बान हो जाना पड़ा

वो तो लम्हों के सिसकते दाएरों में क़ैद है
जिस को अपने आप से अंजान हो जाना पड़ा

इक पहेली की तरह ना-फ़हम थे हम भी 'ज़हीर'
आप की ख़ातिर मगर आसान हो जाना पड़ा