ऐसा कहाँ हुबाब कोई चश्म-ए-तर कि हम
लब ख़ुश्क ये मुहीत है कब इस क़दर कि हम
ऐसा नहीं ग़रीब कोई घर-ब-घर कि हम
ऐसा नहीं ख़राब कोई दर-ब-दर कि हम
मूदाम ही मुशब्बक-ए-मिज़्गान-ए-यार है
लेकिन न इस क़दर रहे ख़स्ता-जिगर कि हम
गो आज हम हैं बे-सर-ओ-पा देखिए कि कल
ये राह-ए-पुल-सिरात करे शैख़ सर कि हम
हम बहसते हैं चाक-ए-गरेबाँ पे तेरे साथ
और देखिए कि हम से रहे तू सहर कि हम
रोते अदम से आए थे रोते ही जाएँगे
ऐसा नहीं अज़ल से कोई नौहागर कि हम
दुनिया कि नेक ओ बद से मुझे कुछ ख़बर नहीं
इतना नहीं जहाँ मैं कोई बे-ख़बर कि हम
पूछा मैं उस से कौन है क़ातिल मिरा बता
कहने लगा पकड़ के वो तेग़ ओ सिपर कि हम
दीवाँ हमारा ग़ौर से 'ताबाँ' तू देख तो
रखता है कब मुहीत ये गंज-ए-गुहर कि हम
ग़ज़ल
ऐसा कहाँ हुबाब कोई चश्म-ए-तर कि हम
ताबाँ अब्दुल हई