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ऐ यास मिरा घर तिरा मस्कन तो नहीं है | शाही शायरी
ai yas mera ghar tera maskan to nahin hai

ग़ज़ल

ऐ यास मिरा घर तिरा मस्कन तो नहीं है

अर्श मलसियानी

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ऐ यास मिरा घर तिरा मस्कन तो नहीं है
दिल है ये तमन्नाओं का मदफ़न तो नहीं है

क्या बात है गुलज़ार है क्यूँ बर्क़ से महफ़ूज़
बे-बर्ग मिरी शाख़-ए-नशेमन तो नहीं है

हाँ दीदा-ए-तहक़ीक़ से ऐ ज़ौक़-ए-सफ़र देख
रहबर जिसे समझा है वो रहज़न तो नहीं है

तकलीफ़ असीरी की शिकायत न कर ऐ दिल
ये कुंज-ए-क़फ़स कुंज-ए-नशेमन तो नहीं है

आओ कि तमन्नाओं में है ताब-ए-नज़ारा
ये दिल है मिरा वादी-ए-ऐमन तो नहीं है

छू कर ही जिसे आतिश-ए-दोज़ख़ हुई ठंडी
दामन ये किसी रिंद का दामन तो नहीं है

मंज़ूर है कुछ जाँच तिरे अज़्म की उस को
दर-अस्ल ज़माना तिरा दुश्मन तो नहीं है

बे-सई-ए-अमल ख़ाक है इंसान को जीना
ये रज़्म-ए-गह-ए-ज़ीस्त है मदफ़न तो नहीं है

सय्याद इजाज़त कि ज़रा देख तो आऊँ
जलता है जो वो मेरा नशेमन तो नहीं है

देखो तो रहा दश्त-नवर्दी पे जो नाज़ाँ
वो 'अर्श' रवाँ जानिब-ए-गुलशन तो नहीं है