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ऐ यार मुझ अफ़सुर्दा-ए-हिज्राँ को पहुँच तू | शाही शायरी
ai yar mujh afsurada-e-hijran ko pahunch tu

ग़ज़ल

ऐ यार मुझ अफ़सुर्दा-ए-हिज्राँ को पहुँच तू

वली उज़लत

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ऐ यार मुझ अफ़सुर्दा-ए-हिज्राँ को पहुँच तू
ऐ रश्क-ए-मसीहा तन-ए-बे-जाँ को पहुँच तू

फ़रियाद-कश इक बोसे का हूँ तेरे लबों से
ऐ सुर्मा मिसी के मिरी अफ़्ग़ाँ को पहुँच तू

गर आतिश-ए-दिल नालों की सरसर से न सुलगे
मत सर्द हो दामान-ए-बयाबाँ को पहुँच तो

बिखरे हैं शरर दिल के मिरे दूद-ए-फ़ुग़ाँ में
अपने ही सर-ए-ज़ुल्फ़-ए-ज़र-अफ़शाँ को पहुँच तू

शायद कि हो इस बाग़ी चमन मीर का मंज़ूर
शबनम हो के ऐ अश्क गुलिस्ताँ को पहुँच तू

गर चाह है सरसब्ज़ी-ए-बख़्तों की दिवाने
अतफ़ाल के पथराव की बाराँ को पहुँच तू

पुर-ज़ंग है आईना-ए-दिल हिन्द से 'उज़लत'
गर चाहिए सफ़ हाँ तो सफ़ाहाँ को पहुँच तू