EN اردو
ऐ वस्ल कुछ यहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ | शाही शायरी
ai wasl kuchh yahan na hua kuchh nahin hua

ग़ज़ल

ऐ वस्ल कुछ यहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

जौन एलिया

;

ऐ वस्ल कुछ यहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
उस जिस्म की मैं जाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

तू आज मेरे घर में जो मेहमाँ है ईद है
तू घर का मेज़बाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

खोली तो है ज़बान मगर इस की क्या बिसात
मैं ज़हर की दुकाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

क्या एक कारोबार था वो रब्त-ए-जिस्म-ओ-जाँ
कोई भी राएगाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

कितना जला हुआ हूँ बस अब क्या बताऊँ मैं
आलम धुआँ धुआँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

देखा था जब कि पहले-पहल उस ने आईना
उस वक़्त मैं वहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

वो इक जमाल जलवा-फ़िशाँ है ज़मीं ज़मीं
मैं ता-ब-आसमाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

मैं ने बस इक निगाह में तय कर लिया तुझे
तू रंग-ए-बेकराँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

गुम हो के जान तू मिरी आग़ोश-ए-ज़ात में
बे-नाम-ओ-बे-निशाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

हर कोई दरमियान है ऐ माजरा-फ़रोश
मैं अपने दरमियाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ