ऐ सनम जिस ने तुझे चाँद सी सूरत दी है
उसी अल्लाह ने मुझ को भी मोहब्बत दी है
तेग़ बे-आब है ने बाज़ु-ए-क़ातिल कमज़ोर
कुछ गिराँ-जानी है कुछ मौत ने फ़ुर्सत दी है
इस क़दर किस के लिए ये जंग-ओ-जदल ऐ गर्दूं
न निशाँ मुझ को दिया है न तू नौबत दी है
साँप के काटे की लहरें हैं शब-ओ-रोज़ आतीं
काकुल-ए-यार के सौदे ने अज़िय्यत दी है
आई इक्सीर ग़नी दिल नहीं रखती ऐसा
ख़ाकसारी नहीं दी है मुझे दौलत दी है
शम्अ का अपने फ़तीला नहीं किस रात जला
अमल-ए-हुब की बहुत हम ने भी दावत दी है
जिस्म को ज़ेर ज़मीं भी वही पहुँचा देगा
रूह को जिस ने फ़लक सैर की ताक़त दी है
फ़ुर्क़त-ए-यार में रो रो के बसर करता हूँ
ज़िंदगानी मुझे क्या दी है मुसीबत दी है
यादशब-ए-महबूब फ़रामोश न होवे ऐ दिल
हुस्न-ए-निय्यत ने मुझे इश्क़ से नेमत दी है
गोश पैदा किए सुनने को तिरा ज़िक्र-ए-जमाल
देखने को तिरे, आँखों में बसारत दी है
लुत्फ़-ए-दिल-बस्तगी-ए-आशिक़-ए-शैदा को न पूछ
दो जहाँ से इस असीरी ने फ़राग़त दी है
कमर-ए-यार के मज़मून को बाँधो 'आतिश'
ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ सी रसा तुम को तबीअत दी है
ग़ज़ल
ऐ सनम जिस ने तुझे चाँद सी सूरत दी है
हैदर अली आतिश