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ऐ मुश्फ़िक़-ए-मन इस हाल में तुम किस तरह बसर फ़रमाओगे | शाही शायरी
ai mushfiq-e-man is haal mein tum kis tarah basar farmaoge

ग़ज़ल

ऐ मुश्फ़िक़-ए-मन इस हाल में तुम किस तरह बसर फ़रमाओगे

मुशफ़िक़ ख़्वाजा

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ऐ मुश्फ़िक़-ए-मन इस हाल में तुम किस तरह बसर फ़रमाओगे
अंजान बने चुप बैठोगे और जान के धोके खाओगे

तुम अपने घर के अँधेरे में क्या देखते हो दीवारों को
ये शम्अ' की सूरत जलना क्या आएगी हवा बुझ जाओगे

जिन झूटे सच्चे ख़्वाबों की ता'बीर ग़म-ए-तन्हाई है
उन झूटे सच्चे ख़्वाबों से तुम कब तक दिल बहलाओगे

इन दीदा-ओ-दिल की राहों पर तुम किस की तलाश में फिरते हो
जो खोना था सो खो बैठे क्या ढूँडोगे क्या पाओगे

छोड़ो भी पुरानी बातों को जो दिल पर बीती बीत गई
अफ़्सुर्दा-दिली से तुम कब तक हर महफ़िल को गर्माओगे

तुम ख़ल्वत-ए-ग़म से निकलो तो इस शहर में ऐसे लोग भी हैं
इक बार जो उन को देखोगे तो देखते ही रह जाओगे

कुछ गर्द-ए-सफ़र के रिश्ते से कुछ नक़्श-ए-क़दम के नाते से
जिस राह से गुज़रोगे यारो हम को भी वहीं तुम पाओगे

मुमकिन ही नहीं है लफ़्ज़ों में इस हुस्न की हो तफ़्सीर कोई
जब आँख खुले ख़ामोश रहो क्या समझोगे समझाओगे

जो पहले थे हम वो आज भी हैं पहचान हमारी आसाँ है
तुम रूप बदल कर लाख फिरो पर किस किस को झुटलाओगे