ऐ हुस्न जब से राज़ तिरा पा गए हैं हम
हस्ती से अपनी और क़रीब आ गए हैं हम
यूँ भी हुआ कि जान गँवा दी तिरे लिए
यूँ भी हुआ कि तुझ से भी कतरा गए हैं हम
राह-ए-वफ़ा में ऐसे मक़ामात भी मिले
अपना सर-ए-नियाज़ भी ठुकरा गए हैं हम
यादश-ब-ख़ैर इक गुल-ए-शादाब थे कभी
ऐसी ख़िज़ाँ पड़ी है कि कुम्हला गए हैं हम
सुब्ह-ए-विसाल थी तो तबीअत थी बाग़ बाग़
शाम-ए-फ़िराक़ आई तो सँवला गए हैं हम
इंसान तेरी फ़तह पे अब भी यक़ीन है
गो अपनी ज़िंदगी से भी घबरा गए हैं हम
महरूमियों का बार-ए-गिराँ दोश पर लिए
ऐ मौत सुन कि तेरे क़रीब आ गए हैं हम
अपने सुबू में तलख़ी-दौराँ समेट कर
बा-सद-ख़ुलूस नोश भी फ़रमा गए हैं हम
तारीख़-ए-इन्क़िलाब-ए-ज़माना से पूछ लो
जब जब सदा मिली सर-ए-दार आ गए हैं हम
'अजमल' जब उन की बज़्म में छेड़ी है दिल की बात
अपने तो ख़ैर ग़ैर को तड़पा गए हैं हम
ग़ज़ल
ऐ हुस्न जब से राज़ तिरा पा गए हैं हम
अजमल अजमली