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ऐ हुस्न-ए-यार शर्म ये क्या इंक़लाब है | शाही शायरी
ai husn-e-yar sharm ye kya inqalab hai

ग़ज़ल

ऐ हुस्न-ए-यार शर्म ये क्या इंक़लाब है

जिगर मुरादाबादी

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ऐ हुस्न-ए-यार शर्म ये क्या इंक़लाब है
तुझ से ज़ियादा दर्द तिरा कामयाब है

आशिक़ की बे-दिली का तग़ाफ़ुल नहीं जवाब
उस का बस एक जोश-ए-मोहब्बत जवाब है

तेरी इनायतें कि नहीं नज़्र-ए-जाँ क़ुबूल
तेरी नवाज़िशें कि ज़माना ख़राब है

ऐ हुस्न अपनी हौसला-अफ़ज़ाइयाँ तो देख
माना कि चश्म-ए-शौक़ बहुत बे-हिजाब है

मैं इश्क़-ए-बे-नियाज़ हूँ तुम हुस्न-ए-बे-पनाह
मेरा जवाब है न तुम्हारा जवाब है

मय-ख़ाना है उसी का ये दुनिया उसी की है
जिस तिश्ना-लब के हाथ में जाम-ए-शराब है

उस से दिल-ए-तबाह की रूदाद क्या कहूँ
जो ये न सुन सके कि ज़माना ख़राब है

ऐ मोहतसिब न फेंक मिरे मोहतसिब न फेंक
ज़ालिम शराब है अरे ज़ालिम शराब है

अपने हुदूद से न बढ़े कोई इश्क़ में
जो ज़र्रा जिस जगह है वहीं आफ़्ताब है

वो लाख सामने हों मगर इस का क्या इलाज
दिल मानता नहीं कि नज़र कामयाब है

मेरी निगाह-ए-शौक़ भी कुछ कम नहीं मगर
फिर भी तिरा शबाब तिरा ही शबाब है

मानूस-ए-ए'तिबार-ए-करम क्यूँ किया मुझे
अब हर ख़ता-ए-शौक़ इसी का जवाब है

मैं उस का आईना हूँ वो है मेरा आईना
मेरी नज़र से उस की नज़र कामयाब है

तन्हाई-ए-फ़िराक़ के क़ुर्बान जाइए
मैं हूँ ख़याल-ए-यार है चश्म-ए-पुर-आब है

सरमाया-ए-फ़िराक़ 'जिगर' आह कुछ न पूछ
अब जान है सो अपने लिए ख़ुद अज़ाब है