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ऐ हम-सफ़ीर तलख़ी-ए-तर्ज़-ए-बयाँ न छोड़ | शाही शायरी
ai ham-safir talKHi-e-tarz-e-bayan na chhoD

ग़ज़ल

ऐ हम-सफ़ीर तलख़ी-ए-तर्ज़-ए-बयाँ न छोड़

शौक़ बहराइची

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ऐ हम-सफ़ीर तलख़ी-ए-तर्ज़-ए-बयाँ न छोड़
तू गालियाँ दिए जा हमें गालियाँ न छोड़

वाइज़ बुतों के चाह-ए-ज़क़न का बयाँ न छोड़
वर्ना कहीं न पाएगा पानी कुआँ न छोड़

पहुँचा दे मक्र-ओ-कैद को हद्द-ए-कमाल तक
ऐ दोस्त ना-तमाम कोई दास्ताँ न छोड़

इन रहबरना-ए-क़ौम से या-रब बचा मुझे
चर लेंगी सब चमन मिरा ये बकरियाँ न छोड़

फूलों से भर सके न अगर दामन-ए-हवस
सेहन-ए-चमन की घास भी ऐ बाग़बाँ न छोड़

बे-वसवसा ग़रीबों पे भी हाथ साफ़ कर
मिल जाएँ तो जवार की भी रोटियाँ न छोड़

दीवानों के तो जैब ओ गिरेबाँ का ज़िक्र क्या
गर धज्जियाँ भी हाथ लगें मेहरबाँ न छोड़

इंसानियत में बाक़ी है सफ़्फ़ाक दम अभी
इक हाथ कस के और उसे नीम-जाँ न छोड़

ज़ालिम उसी ने नाक में दम कर दिया तिरा
रगड़े जा ख़ूब गर्दन-ए-अम्न-ओ-अमाँ न छोड़

अब ज़ुल्म में इज़ाफ़ा न कर बानी-ए-जफ़ा
क़स्र-ए-सितम के आगे कोई साएबाँ न छोड़

रंज-ओ-अलम का ज़ाइक़ा इक रोज़ तू भी चख
ये ख़ास जौनपुर की तू मूलियाँ न छोड़

ऐ 'शौक़' ये जफ़ाएँ हैं क्या ये सितम हैं क्या
हर इम्तिहाँ में बैठ कोई इम्तिहाँ न छोड़