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ऐ बे-दिलो हरीफ़-ए-शब-ए-तार क्यूँ हुए | शाही शायरी
ai be-dilo harif-e-shab-e-tar kyun hue

ग़ज़ल

ऐ बे-दिलो हरीफ़-ए-शब-ए-तार क्यूँ हुए

परवेज़ शाहिदी

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ऐ बे-दिलो हरीफ़-ए-शब-ए-तार क्यूँ हुए
कच्ची अगर थी नींद तो बेदार क्यूँ हुए

सहरा को आज कोसती फिरती हैं आँधियाँ
दीवाने गुलिस्ताँ के तरफ़-दार क्यूँ हुए

सुस्त-ए'तिबारियों को नहीं ताब-ए-इंतिज़ार
वा'दे सहर के सर्फ़-ए-शब-ए-तार क्यूँ हुए

शरमा गया चमन में तबस्सुम बहार का
हम गुल-फ़रोश ज़ख़्म-ए-दिल-ए-ज़ार क्यूँ हुए

क्या गुल्सिताँ में थी सफ़र-आमादा बू-ए-गुल
झोंके हवा के क़ाफ़िला-सालार क्यूँ हुए

ऐ ज़िंदगी नक़ाब उलट कर जवाब दे
फ़न हम से पूछता है कि फ़नकार क्यूँ हुए