ऐ बाग़-ए-हया दिल की गिरह खोल सुख़न बोल
तंगी है मिरे हाल पर ऐ ग़ुंचा-दहन बोल
ऐ आह सुना उस कूँ मिरे हाल की अर्ज़ी
तुझ ज़ुल्फ़ के पेचों ने दिया मुझ कूँ शिकन बोल
मुद्दत सती परवाना तूँ हमदर्द मिरा है
उस शम्अ सें तेरी जो लगी आज लगन बोल
आती है तुझे देख के गुल-रू की गली याद
ऐ बुलबुल-ए-बेताब मुझे अपना वतन बोल
ख़ामोश न हो सोज़-ए-'सिराज' आज की शब पूछ
भड़की है मिरे दिल में तिरे ग़म की अगन बोल
ग़ज़ल
ऐ बाग़-ए-हया दिल की गिरह खोल सुख़न बोल
सिराज औरंगाबादी