अगर वो हम-सफ़र ठहरें तो हम को डर में रखते हैं
बिखर जाएँ न हम ख़ुद को मुक़य्यद घर में रखते हैं
हमें सय्यार्गां की गर्दिशें मालूम हैं लेकिन
हम अपनी गर्दिशों को अपने ही मेहवर में रखते हैं
सफ़र के ब'अद रहते हैं तसलसुल में सफ़र के हम
तलाश-ए-रिज़्क़ का जज़्बा शिकस्ता पर में रखते हैं
हमारा हाल-ए-दिल अब तक किसी पर खुल नहीं पाया
वुफ़ूर-ए-दर्द को हम ज़ब्त की चादर में रखते हैं
हम अहल-ए-दर्द हैं अपना तो शेवा ही फ़क़ीरी है
जहाँ के दर्द अपनी ज़ात के पैकर में रखते हैं
कोई क़ारून बाक़ी है न कोई शाह अब 'आसिफ़'
वो कैसे लोग हैं ख़ुद को जो क़ैद-ए-ज़र में रखते हैं
ग़ज़ल
अगर वो हम-सफ़र ठहरें तो हम को डर में रखते हैं
शफ़ीक़ आसिफ़