अगर दिला ग़म-ए-गेसू-ए-यार बढ़ जाता
शब-ए-फ़िराक़ में और इंतिशार बढ़ जाता
जो शौक़-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गान-ए-यार बढ़ जाता
तिरा मज़ा ख़लिश-ए-नोक-ए-ख़ार बढ़ जाता
जो मेरी चश्म के पर्दे शरीक हो जाते
कमाल-ए-दामन-ए-अब्र-ए-बहार बढ़ जाता
वतन में हम न हुए ख़ाक शुक्र की जा है
ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-अहल-ए-दयार बढ़ जाता
दिखाई क्यूँ न मुझे आ के गरमी-ए-रफ़्तार
बला से आप की मेरा बुख़ार बढ़ जाता
ग़ज़ल
अगर दिला ग़म-ए-गेसू-ए-यार बढ़ जाता
रशीद लखनवी