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अगर दिला ग़म-ए-गेसू-ए-यार बढ़ जाता | शाही शायरी
agar dila gham-e-gesu-e-ya baDh jata

ग़ज़ल

अगर दिला ग़म-ए-गेसू-ए-यार बढ़ जाता

रशीद लखनवी

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अगर दिला ग़म-ए-गेसू-ए-यार बढ़ जाता
शब-ए-फ़िराक़ में और इंतिशार बढ़ जाता

जो शौक़-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गान-ए-यार बढ़ जाता
तिरा मज़ा ख़लिश-ए-नोक-ए-ख़ार बढ़ जाता

जो मेरी चश्म के पर्दे शरीक हो जाते
कमाल-ए-दामन-ए-अब्र-ए-बहार बढ़ जाता

वतन में हम न हुए ख़ाक शुक्र की जा है
ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-अहल-ए-दयार बढ़ जाता

दिखाई क्यूँ न मुझे आ के गरमी-ए-रफ़्तार
बला से आप की मेरा बुख़ार बढ़ जाता