अगर चमन का कोई दर खुला भी मेरे लिए
सुमूम बन गई बाद-ए-सबा भी मेरे लिए
मिरा सुख़न भी हुआ उस के नाम से मौसूम
अबस हुआ मिरा अपना कहा भी मेरे लिए
यही नहीं कि वो रस्ते से मोड़ काट गया
न छोड़ा उस ने कोई नक़्श-ए-पा भी मेरे लिए
तअल्लुक़ात का रखना भी तोड़ना भी मुहाल
अज़ाब-ए-जाँ है ये रस्म-ए-वफ़ा भी मेरे लिए
मुझे तवील सफ़र का मिला था हुक्म तो फिर
कुछ और होती कुशादा फ़ज़ा भी मेरे लिए
मिरे लिए जो है ज़ंजीर मेरा औज-ए-नज़र
कमंद है मिरी फ़िक्र-ए-रसा भी मेरे लिए
दवा है मेरे लिए जिस की ख़ाक-ए-पा 'मोहसिन'
उसी का इस्म है हर्फ़-ए-दुआ भी मेरे लिए
ग़ज़ल
अगर चमन का कोई दर खुला भी मेरे लिए
मोहसिन ज़ैदी