अफ़्सुर्दगी-ए-दिल से ये रंग है सुख़न में
या'नी ख़िज़ाँ-रसीदा कुछ फूल हैं चमन में
ग़ुर्बत में भी रहे हम यारों की अंजुमन में
याद-ए-वतन ने रक्खा अक्सर हमें वतन में
क्या साँस का भरोसा फिर आए या न आए
कब तक जलेगी आख़िर ये शम्अ' अंजुमन में
लाखों में एक निकली वज़-ए-जुनूँ भी अपनी
अब भी रहे न दब कर हम उन से बाँकपन में
क्या जाने क्या वहाँ से लाया ख़ुशी का मुज़्दा
फूला नहीं समाता क़ासिद जो पैरहन में
जो चाहते हैं राहत लिक्खें वो हाल-ए-ग़ुर्बत
हम नंग जानते हैं ख़त भेजना वतन में
शायद कुछ अम्न पाँव हाथों से आसमाँ के
ख़ाक उस गली की ले कर मलना मिरे कफ़न में
गो पीर-ज़न है मुख़्बिर बाइ'स तो है ये आख़िर
आलूदा दस्त-ए-शीरीं है ख़ून-ए-कोहकन में
हम मय-कशों को पी कर ये इंफ़िआल आया
रा'शा पड़ा हुआ है एक एक उज़्व-ए-तन में
ख़ाना-ख़राबी अपनी याद आई जी भर आया
उजड़ा हुआ जो देखा इक आशियाँ चमन में
वाइ'ज़ तिरी ज़बाँ से ग़ीबत बुतों की सुन कर
मस्जिद से उठ के पहुँचे हम दैर-ए-बरहमन में
वो दिल में और दिल है सौ हसरतों का मस्कन
ख़ल्वत में अंजुमन है ख़ल्वत है अंजुमन में
शायर 'हफ़ीज़' तुम से कामिल बहुत हैं लेकिन
कहते हैं दर्द ऐसा पैदा कहाँ सुख़न में
ग़ज़ल
अफ़्सुर्दगी-ए-दिल से ये रंग है सुख़न में
हफ़ीज़ जौनपुरी