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अदू-ए-जाँ बुत-ए-बे-बाक निकला | शाही शायरी
adu-e-jaan but-e-be-bak nikla

ग़ज़ल

अदू-ए-जाँ बुत-ए-बे-बाक निकला

वज़ीर अली सबा लखनवी

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अदू-ए-जाँ बुत-ए-बे-बाक निकला
बड़ा क़ातिल बड़ा सफ़्फ़ाक निकला

सनोबर क़द-कशी में ख़ाक निकला
वो सर्व-ए-क़द चमन की नाक निकला

फ़रिश्तों को किया मात आदमी ने
क़यामत का ये मुश्त-ए-ख़ाक निकला

उड़ा दी क़ैद-ए-मज़हब दिल से हम ने
क़फ़स से ताइर-ए-इदराक निकला

मोहब्बत से खुला हाल-ए-ज़माना
ये दिल लौह-ए-तिलिस्म-ए-ख़ाक निकला

निकल आई फ़लक की दूर से रूह
भँवर से ख़ूब ये तैराक निकला

वो पज़मुर्दा था फ़स्ल-ए-गुल जो आई
चमन से सूरत-ए-ख़ाशाक निकला

शिकार-अफ़्गन मैं दिल को जानता था
ग़ज़ाल-ए-बस्ता-ए-फ़ितराक निकला

मरे हम आरज़ू उन की बर आए
हमारा हौसला क्या ख़ाक निकला

जुनूँ में बाग़-ए-आलम को जो देखा
अजब सहरा-ए-वहशत-नाक निकला

निकलती है बदन से जिस तरह रूह
तिरे घर से मैं यूँ ग़मनाक निकला

तुम्हारे क़द से कुछ कम सर्व ठहरा
सनोबर तो बहुत कावाक निकला

हमारी सादा-लौही काम आई
हिसाब-ए-रोज़-ए-महशर पाक निकला

तरारा फिरते ही पहुँचा अदम में
समंद-ए-उम्र क्या चालाक निकला

भरे लड़कों ने दामन पत्थरों से
जहाँ तेरा गरेबाँ चाक निकला

मिटाया दौर-ए-साक़ी मोहतसिब ने
अदू जमशेद का ज़ह्हाक निकला

'सबा' हम हश्र को मुजरिम जो निकले
शफ़ाअत को शह-ए-लौलाक निकला