अदू-ए-दीन-ओ-ईमाँ दुश्मन-ए-अम्न-ओ-अमाँ निकले
तिरे पैकाँ बड़े जाबिर बड़े ना-मेहरबाँ निकले
अदाओं ने लुभाया दी निगाह-ए-नाज़ ने दावत
मगर अल्फ़ाज़ दिल-शिकनी में मेरी कामराँ निकले
मुकर लो इश्क़ से लेकिन सर-ए-महशर न कहना कुछ
वहाँ पर कौन जाने कोई अपना राज़-दाँ निकले
तुम्हारी बज़्म है रुत्बे में जन्नत से भी बाला-तर
यहाँ पीरी में आए हम मगर हो कर जवाँ निकले
बड़ा चर्चा है कोह-ए-तूर का वादी-ए-ऐमन का
बहुत अग़्लब है वो दर-पर्दा मेरी दास्ताँ निकले
बयाबाँ में चमन में दश्त में या कोह-ए-वीराँ में
ख़ुदा जाने कहाँ पहुँचे जो सू-ए-आशियाँ निकले
हमारी मौत भी इक मौज है दरिया-ए-हस्ती की
बस इक ग़ोता लगाना है यहाँ डूबे वहाँ निकले
मोअत्तर कर गई बू-ए-वफ़ा माहौल-ए-आलम को
मिरे हर क़तरा-ए-ख़ूँ से हज़ारों गुलिस्ताँ निकले
छुपे हैं सात पर्दों में ये सब कहने की बातें हैं
उन्हें मेरी निगाहों ने जहाँ ढूँडा वहाँ निकले
ये वक़्त-ए-नज़अ' कैसा कैसी तकमील-ए-हयात ऐ दिल
उम्मीदें कब हुईं पूरी अभी अरमाँ कहाँ निकले
ख़ुदा का शुक्र बे-दाम-ओ-दिरम थे मय-कदे में हम
मगर पीर-ए-मुग़ाँ अपने पुराने मेहरबाँ निकले
हक़ीक़त को जो देखा इक नई दुनिया नज़र आई
सितम गोया करम था दुश्मन-ए-जाँ पासबाँ निकले
मोहब्बत में लुटे लेकिन बहुत अच्छे रहे 'रहबर'
गुमाँ था जिन पे रहज़न का वो मीर-ए-कारवाँ निकले

ग़ज़ल
अदू-ए-दीन-ओ-ईमाँ दुश्मन-ए-अम्न-ओ-अमाँ निकले
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर