अदा-ए-तूल-ए-सुख़न क्या वो इख़्तियार करे
जो अर्ज़-ए-हाल ब-तर्ज़-ए-निगाह-ए-यार करे
बहुत ही तल्ख़-नवा हूँ मगर अज़ीज़-ए-वतन
मैं क्या करूँ जो तिरा दर्द बे-क़रार करे
क़दम को फ़ैज़-ए-जुनूँ से वो हौसला है नसीब
जो ख़ार-ए-राह को भी शम-ए-रहगुज़ार करे
जगाएँ हम-सफ़रों को उठाएँ परचम-ए-शौक़
न जाने कब हो सहर कौन इंतिज़ार करे
मिसाल मिलती है कितनों की उस दिवाने से
चमन से दूर जो बैठा ग़म-ए-बहार करे
दयार-ए-जौर में रस्ता है इक यही वर्ना
किसे पसंद है ऐ दिल कि सैर-दार करे
ख़ुदा करे ग़म-ए-गीती का पेच-ओ-ताब ऐ दोस्त
कुछ और भी तिरी ज़ुल्फ़ों को ताबदार करे
सितम कि तेग़-ए-क़लम दें उसे जो ऐ 'मजरूह'
ग़ज़ल को क़त्ल करे नग़्मे को शिकार करे
ग़ज़ल
अदा-ए-तूल-ए-सुख़न क्या वो इख़्तियार करे
मजरूह सुल्तानपुरी