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अदा-ए-तूल-ए-सुख़न क्या वो इख़्तियार करे | शाही शायरी
ada-e-tul-e-suKHan kya wo iKHtiyar kare

ग़ज़ल

अदा-ए-तूल-ए-सुख़न क्या वो इख़्तियार करे

मजरूह सुल्तानपुरी

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अदा-ए-तूल-ए-सुख़न क्या वो इख़्तियार करे
जो अर्ज़-ए-हाल ब-तर्ज़-ए-निगाह-ए-यार करे

बहुत ही तल्ख़-नवा हूँ मगर अज़ीज़-ए-वतन
मैं क्या करूँ जो तिरा दर्द बे-क़रार करे

क़दम को फ़ैज़-ए-जुनूँ से वो हौसला है नसीब
जो ख़ार-ए-राह को भी शम-ए-रहगुज़ार करे

जगाएँ हम-सफ़रों को उठाएँ परचम-ए-शौक़
न जाने कब हो सहर कौन इंतिज़ार करे

मिसाल मिलती है कितनों की उस दिवाने से
चमन से दूर जो बैठा ग़म-ए-बहार करे

दयार-ए-जौर में रस्ता है इक यही वर्ना
किसे पसंद है ऐ दिल कि सैर-दार करे

ख़ुदा करे ग़म-ए-गीती का पेच-ओ-ताब ऐ दोस्त
कुछ और भी तिरी ज़ुल्फ़ों को ताबदार करे

सितम कि तेग़-ए-क़लम दें उसे जो ऐ 'मजरूह'
ग़ज़ल को क़त्ल करे नग़्मे को शिकार करे