अब्रू-ए-अब्र से करता है इशारा मुझ को
झलक उस आँख की दिखला के सितारा मुझ को
हूँ मैं वो शम्अ' सर-ए-ताक़ जला कर सर-ए-शाम
भूल जाता है मिरा अंजुमन-आरा मुझ को
राएगाँ वुसअ'त-ए-वीराँ में ये खिलते हुए फूल
उन को देखूँ तो ये देते हैं सहारा मुझ को
मेरी हस्ती है फ़क़त मौज-ए-हवा नक़्श-ए-हबाब
कोई दम और करें आप गवारा मुझ को
दाम फैलाती रही सूद-ओ-ज़ियाँ की ये बिसात
हाँ मगर मेरे जुनूँ ने नहीं हारा मुझ को
कुछ शब-ओ-रोज़-ओ-मह-ओ-साल गुज़र कर मुझ पर
वक़्त ने ता-ब-अबद ख़ुद पे गुज़ारा मुझ को
मौज-ए-बे-ताब हूँ मैं मेरे अनासिर हैं कुछ और
चाहिए सोहबत-ए-साहिल से किनारा मुझ को
रिज़्क़ से मेरे मिरे दिल को है रंजिश 'ख़ुर्शीद'
आसमानों से ज़मीनों पे उतारा मुझ को
ग़ज़ल
अब्रू-ए-अब्र से करता है इशारा मुझ को
ख़ुर्शीद रिज़वी