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अब्रू-ए-अब्र से करता है इशारा मुझ को | शाही शायरी
abru-e-abr se karta hai ishaara mujhko

ग़ज़ल

अब्रू-ए-अब्र से करता है इशारा मुझ को

ख़ुर्शीद रिज़वी

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अब्रू-ए-अब्र से करता है इशारा मुझ को
झलक उस आँख की दिखला के सितारा मुझ को

हूँ मैं वो शम्अ' सर-ए-ताक़ जला कर सर-ए-शाम
भूल जाता है मिरा अंजुमन-आरा मुझ को

राएगाँ वुसअ'त-ए-वीराँ में ये खिलते हुए फूल
उन को देखूँ तो ये देते हैं सहारा मुझ को

मेरी हस्ती है फ़क़त मौज-ए-हवा नक़्श‌‌‌‌-ए-हबाब
कोई दम और करें आप गवारा मुझ को

दाम फैलाती रही सूद-ओ-ज़ियाँ की ये बिसात
हाँ मगर मेरे जुनूँ ने नहीं हारा मुझ को

कुछ शब-ओ-रोज़-ओ-मह-ओ-साल गुज़र कर मुझ पर
वक़्त ने ता-ब-अबद ख़ुद पे गुज़ारा मुझ को

मौज-ए-बे-ताब हूँ मैं मेरे अनासिर हैं कुछ और
चाहिए सोहबत-ए-साहिल से किनारा मुझ को

रिज़्क़ से मेरे मिरे दिल को है रंजिश 'ख़ुर्शीद'
आसमानों से ज़मीनों पे उतारा मुझ को