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अब्र साँ हर-चंद रक्खा चश्म को पुर-आब हम | शाही शायरी
abr san har-chand rakkha chashm ko pur-ab hum

ग़ज़ल

अब्र साँ हर-चंद रक्खा चश्म को पुर-आब हम

क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी

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अब्र साँ हर-चंद रक्खा चश्म को पुर-आब हम
कर सके पर किश्त उल्फ़त का नहीं शादाब हम

हिज्र की आतिश ने ऐसा क़ुर्ब-ए-दिल पैदा किया
बे-क़राराना तड़पते अब हैं जूँ सीमाब हम

छा गईं ज़ुल्फ़ें किसी मुखड़े पे जूँ आकास पूँ
ख़ुद-बख़ुद खाते हैं पेच-ओ-ताब जूँ लैलाब हम

गर्द-बाद-आसा पड़े फिरते हैं बाग़-ओ-राग़ में
मस्कन-ओ-मावा कहाँ रखते हैं दर-यक-बाब हम

देख लेने दे तू अपने कान का बूंदा हमें
फिर कहाँ पावेंगे ज़ालिम ये दुर-ए-नायाब हम

ज़िंदगी फुस्ला के लाई याँ हज़ार अफ़्सोस आह
फँस गए बे-तरह इस दुनिया के दर ख़ुल्लाब हम

याँ है फ़िक्र-ए-मईशत वाँ है अंदेशा मआ'द
हैं ब-गिर्दाब-ए-ग़म-ए-दुनिया-ए-दूँ ग़र्क़ाब हम

मुन्कशिफ़ होती हक़ीक़त मर्ग गर रोज़-ए-अलस्त
हरगिज़ ऐ दहर अज़ अदम करते नहीं पेशाब हम

मत कर 'अफ़रीदी' को इस मस्लख़ में पाबंद आख़िरश
ज़ब्ह हो जावेंगे तेरे हाथ ऐ क़स्साब हम