अब्र में याद-ए-यार आवे है
गिर्या बे-इख़्तियार आवे है
बाग़ से गुल-इज़ार आवे है
बू-ए-गुल पर सवार आवे है
ऐ ख़िज़ाँ भाग जा चमन से शिताब
वर्ना फ़ौज-ए-बहार आवे है
ऐ सबा किस तरफ़ को गुज़री थी
तुझ से बू-ए-निगार आवे है
मुझ हवा-ख़्वाह से गुरेज़ सो क्यूँ
तुझ को क्या मुझ से आर आवे है
सुन के कहने लगे किसी के कोई
काहे को बार बार आवे है
इस क़दर बस-कि रोज़ मिलने से
ख़ातिरों में ग़ुबार आवे है
मैं तो क्या 'हातिम' ऐसे बद-ख़ू से
किस को सोहबत बरार आवे है
ग़ज़ल
अब्र में याद-ए-यार आवे है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम