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अब्र छाया था फ़ज़ाओं में तिरी बातों का | शाही शायरी
abr chhaya tha fazaon mein teri baaton ka

ग़ज़ल

अब्र छाया था फ़ज़ाओं में तिरी बातों का

रफ़ीआ शबनम आबिदी

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अब्र छाया था फ़ज़ाओं में तिरी बातों का
कितना दिलकश था वो मंज़र भरी बरसातों का

बुझती शम्ओं' के तअ'फ़्फ़ुन से बचाने तुझ को
मैं ने आँचल में समेटा है धुआँ रातों का

कोई शहनाई से कह दो ज़रा ख़ामोश रहे
शोर अच्छा नहीं लगता मुझे बारातों का

लाख दरवाज़े हों चुप और दरीचे ख़ामोश
चूड़ियाँ राज़ उगलती हैं मुलाक़ातों का

धूप भी तेज़ है 'शबनम' का भरोसा भी नहीं
वक़्त भी बाक़ी नहीं अब तो मुनाजातों का