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अब्र छाया न कोई अब्र बरसता गुज़रा | शाही शायरी
abr chhaya na koi abr barasta guzra

ग़ज़ल

अब्र छाया न कोई अब्र बरसता गुज़रा

ख़्वाजा रियाज़ुद्दीन अतश

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अब्र छाया न कोई अब्र बरसता गुज़रा
अब के सावन भी कड़ी धूप में जलता गुज़रा

या सर-ए-राह कभी टूट के तारे बरसे
या किसी चाँद का बुझता हुआ साया गुज़रा

हम जलाते रहे हर-गाम मोहब्बत के चराग़
वो रह-ओ-रस्म की हर शम्अ' बुझाता गुज़रा

हम गुज़र जाते हैं हर दूर से ऐसे जैसे
एक आँसू किसी झुर्री से ढलकता गुज़रा

सोचता हूँ कि बदलने पड़े कितने चेहरे
ज़िंदगी गुज़री है अपनी कि तमाशा गुज़रा

जादा-ए-उम्र 'अतश' पाँव की गर्दिश ठहरी
दश्त सिमटा न कभी दामन-ए-सहरा गुज़रा