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अब्र बादल है और सहाब घटा | शाही शायरी
abr baadal hai aur sahab ghaTa

ग़ज़ल

अब्र बादल है और सहाब घटा

इस्माइल मेरठी

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अब्र बादल है और सहाब घटा
जिस की हम देखते हैं आज बहार

किस को बाराँ ने ताज़गी बख़्शी
ज़र'अ खेती है और दरख़्त अश्जार

कौन सी जा है सैर के क़ाबिल
बाग़ रौज़ा हदीक़ा और गुलज़ार

अब ग़रीबों को हो गई तस्कीं
जो कि लेते थे क़र्ज़-ओ-वाम उधार

क़हत है काल और गदाई भीक
जिस के मेंह ने मिटा दिए आसार

जू नदी आब-गीर है तालाब
मेंह जो बरसा तो भर गए यक-बार

निर्ख़ है भाव और ग़ल्ला अनाज
सस्ता अर्ज़ां है सूक़ है बाज़ार

मर्दुम-ओ-आदमी बशर इंसान
फ़ज़्ल-ए-बारी के सब हैं शुक्र-गुज़ार

हैं कुशावर्ज़ काश्त-कार किसान
ख़ुश्क-साली से थे बहुत नाचार

मेंह बरसता रहा कई दिन रात
रोज़-ओ-शब सुब्ह-ओ-शाम लैल-ओ-नहार

क़तरा है बूँद और मेंह बाराँ
आब पानी है और बहुत बिसयार

बूँदा-बाँदी यही तरश्शोह है
जैसे है आज नन्ही नन्ही फुवार

काली काली घटा है अब्र-ए-सियाह
जो कि बरसा रही है ये बौछार

साया है छाँव आफ़्ताब है धूप
देख आज धूप छाँव की ये बहार