अभी शब है मय-ए-उल्फ़त उण्डेलें
मगर दिन में घरों के रास्ते लें
चलो रुक जाएँ बहर-ए-दीद हम भी
दरीचे पर झुकी जाती हैं बेलें
ख़ुदाया काश ये हीरे सी आँखें
मोहब्बत की कड़ी बाज़ी न खेलें
इरादा है न पहचानें उसे हम
तमन्ना को ये ज़िद बाहोँ में ले लें
बहुत अर्सा रहे हैं साथ उस के
सो अब तन्हाई भी कुछ रोज़ झेलें
है दिल में ज़ब्त और आँखों में आँसू
तसादुम को बढ़ी आती हैं रेलें
ये घर हैं या ब-वक़्त-ए-शाम 'साजिद'
स्वागत के लिए खुलती हैं जेलें
ग़ज़ल
अभी शब है मय-ए-उल्फ़त उण्डेलें
ग़ुलाम हुसैन साजिद