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अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा | शाही शायरी
abhi kuchh aur bhi gard-o-ghubar ubhrega

ग़ज़ल

अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा

मोहसिन भोपाली

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अभी कुछ और भी गर्द-ओ-ग़ुबार उभरेगा
फिर इस के बा'द मिरा शह-सवार उभरेगा

सफ़ीना डूबा नहीं है नज़र से ओझल है
मुझे यक़ीन है फिर एक बार उभरेगा

पड़ी भी रहने दो माज़ी पे मस्लहत की राख
कुरेदने से फ़क़त इंतिशार उभरेगा

हमारे अहद में शर्त-ए-शनावरी है यही
है डूबने पे जिसे इख़्तियार उभरेगा

शब-ए-सियह का मुक़द्दर शिकस्त है 'मोहसिन'
दर-ए-उफ़ुक़ से फिर अंजुम-शिकार उभरेगा