अबस अबस तुझे मुझ से हिजाब आता है
तिरे लिए कोई ख़ाना-ख़राब आता है
पलक के मारते हस्ती तमाम होती है
अबस को बहर-ए-अदम से हबाब आता है
ख़ुदा ही जाने जलाया है किस सितमगर ने
जिगर तो चश्म से हो कर कबाब आता है
शब-ए-फ़िराक़ में अक्सर मैं ले के आईना
ये देखता हूँ कि आँखों में ख़्वाब आता है
नज़र करूँ हूँ तो याँ ख़्वाब का ख़याल नहीं
गिरे है लख़्त-ए-जिगर या कि आब आता है
ग़ज़ल
अबस अबस तुझे मुझ से हिजाब आता है
अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ